ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
पातिसाही १० ॥
त्व प्रसादि चउपई ॥
प्रणवो आदि एकंकारा ॥
जल थल महीअल कीओ पसारा ॥
आदि पुरख अबिगत अबिनासी ॥
लोक चत्तु्र दस जोति प्रकासी ॥१॥
हसत कीट के बीच समाना ॥
राव रंक जिह इक सर जाना ॥
अद्वै अलख पुरख अबिगामी ॥
सभ घट घट के अंतरजामी ॥२॥
अलख रूप अछै अनभेखा ॥
राग रंग जिह रूप न रेखा ॥
बरन चिहन सभहूँ ते निआरा ॥
आद पुरख अद्वै अबिकारा ॥३॥
बरन चिहन जिह जात न पाता ॥
सत्त्र मित्त्र जिह तात न माता ॥
सभ ते दूरि सभन ते नेरा ॥
जल थल महीअल जाहि बसेरा ॥४॥
अनहद रूप अनाहद बानी ॥
चरन सरन जिह बसत भवानी ॥
ब्रहमा बिसन अंतु नही पाइओ ॥
नेत नेत मुखचार बताइओ ॥५॥
कोटि इंद्र उपइंद्र बनाए ॥
ब्रहमा रुद्र उपाइ खपाए ॥
लोक चत्त्र दस खेल रचाइओ ॥
बहुर आप ही बीच मिलाइओ ॥६॥
दानव देव फनिंद अपारा ॥
गंध्रब जच्छ रचै सुभ चारा ॥
भूत भविक्ख भवान कहानी ॥
घट घट के पट पट की जानी ॥७॥
तात मात जिह जात न पाता ॥
एक रंग काहू नही राता ॥
सरब जोत के बीच समाना ॥
सभहूँ सरब ठौर पहिचाना ॥८॥
काल रहत अन काल सरूपा ॥
अलख पुरख अबगत अवधूता ॥
जात पात जिह चिहन न बरना ॥
अबगत देव अछै अन भरमा ॥९॥
सभ को काल सभन को करता ॥
रोग सोग दोखन को हरता ॥
एक चित्त जिह इक छिन धिआइओ ॥
काल फास के बीच न आइओ ॥१०॥